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सिद्धांत -२ Principle Of Balance

संतुलन का सिद्धांत – जब हम किसी एक सिरे पर बल प्रयोग करते है तो हम प्रतिरोध का निर्माण करते है – When you force something toward an end, you produce the contrary.

Principle of Balance or U can say – Principle of  Action-Reaction

हम सब जानते है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हमें विज्ञान के सिद्धांतों में भी सिखाया गया है कि हर आघात का प्रत्याघात होता है। यह सिद्धांत “When you force something toward an end, you produce the contrary.” कुछ हद्द तक हम इसे मनोविज्ञान भी कह सकते है। 

हमारे आसपास स्थित सभी वस्तु ,लोग और स्थिति प्रत्येक की कोई न कोई सीमा या मर्यादा होती है। जब हम किसी गुब्बारे में हवा भरते है तब गुब्बारे का आकार बड़ा होने लगता है । जैसे जैसे हवा गुब्बारे में भरती जाती है गुब्बारा अधिक सुंदर दिखता । लेकिन यदि हम गुब्बारे में हवा भरते ही जाएंगे तो एक बिंदु तक गुब्बारा अपना आकार बांध लेता है , उस एक बिंदु के पार जब हवा गुब्बारे में भरने की चेष्टा यदि हम करते है तो गुब्बारा फट जाएगा , और यही नियम सर्वत्र लागु होता है। 

एक बिंदु तक या एक सीमा तक हमारे प्रयास उपयोगी और उपजाऊ रहते है उसके बाद फिर निरुपयोगी और अनुत्पादक हो जाते है। कभी कभी तो नकारात्मक या रिबोउंस प्रतिक्रिया भी देखने मिलती है। 

हमें अपने प्रयासों को उचित दिशा में करना आवश्यक है। हमें स्वयं की क्षमताओं उजागर करना होगा और अपने comfort zone से ऊपर उठकर कार्य करना होगा, अक्सर हम स्वयं की क्षमताओं को कम आंकते है।  किन्तु जब स्वयं की क्षमताओ का महत्तम उपयोग करते है तब हमारे भीतर नई क्षितिज विस्तारित होती है…लेकिन अपनी क्षमता को विस्तृत करना और अपने आपको अनावश्यक खिंचाव देकर या बल पूर्वक अपनी सीमओं से परे जाकर प्रयास करना यह दोनों के बीच जो अंतर है उसे समजना आवश्यक है।

 व्यक्ति को यह “ज्ञान” होना आवश्यक है कि “कहाँ रुकना है ?” जैसे “Banana” – खाने में तो अच्छा फल है ही किन्तु Banana के  spelling में जो Ba के बाद nana आता है, उस nana को यदि दो बार के स्थान पर चार बार लिख ले nananana तो Banana का spelling गलत हो जायेगा। दो बार  nana लिखना ही उचित है , तभी डिक्शनरी के प्रमाण से Banana  का  spelling सही होगा…स्वयं की “क्षमताओं का और प्रयासों ” का भी कुछ ऐसा ही है nananana और अधिक और अधिक के चक्कर में आखिर हम बल का प्रयोग करते ही जाते है और एक बिंदु तक ठीक है फिर equilibrium का नियम लागु हो जाता है।ध्यान से देखिये तो स्वयं Banana का nana ही कह रहा है “ना ना”( nana)…रुक जाओ- अन्यथा दुःख मिलेगा।   

• अधिक पैसा कमाने के लिए अधिक काम करने में हम जुट जाते है जिसके कारण हमारे शरीर को हम क्षमता से अधिक कार्य करने के लिए विवश करते है – शुरुआत में तो हम अधिक कार्य करने पर सक्षमता का अनुभव करते है किन्तु कितने समय तक इस तरह से हम कार्य करेंगे ? क्या इसकी कोई विपरीत असर नहीं होगी हमारे स्वास्थ्य पर ?

मनुष्य भी विचित्र प्राणी है – पहेले धन कमाने के लिए स्वास्थ्य गँवाया और फिर स्वास्थ्य पाने के लिए धन गँवाया ।

• उत्तम स्वास्थ्य के लिए जब हम व्यायाम या योग करना शुरू करते है तब ऐसा अक्सर होता है कि हमारे साथ जो अभ्यासु होते है उनको देखकर हम भी प्रेरित होने लगते है या जोश में आ कर या दूसरों से तुलना करते हुए हम भी स्वयं की क्षमता से अधिक व्यायाम और योग का अभ्यास करने लगते है। क्या ऐसा करना कितना उचित होगा ?

योग के चार भावों को जो अभ्यासु जान जाता है उसके लिए योग मेट पर योग साधना और जीवन के हर क्षेत्र में अद्भुत संतुलन की संभावना बढ़ जाती है –

योग के ४ भाव – कर्तव्य – ज्ञान -वैराग्य -ऐश्वर्य

कर्तव्य भाव – हमारा धर्म – हमारा कर्तव्य न केवल अपने परिवार के प्रति या व्यापर के प्रति किन्तु हमारा स्वयं के प्रति कर्तव्य।

ज्ञान भाव – स्वयं की सीमाओं का ज्ञान और स्वयं की क्षमताओं का ज्ञान और उस ज्ञान का स्वीकार।

वैराग्य भाव – जब भी हम कर्तव्य को निभा रहे होते है तब उसी कर्तव्य के प्रति शत प्रतिशत ध्यान , पूरी दुनिया से उस समय वैराग्य ।

ऐश्वर्य भाव – जब कोई छोटा सा भी कार्य उत्कृष्ट स्वरूप में साकार हो जाए और हमें आंतरिक आनंद का अनुभव हो वही ऐश्वर्य भाव है जैसे कोई आसन की स्थिति को बहुत समय से सिद्ध करना चाहते है और कठिन लग रहा है किन्तु निरंतर अभ्यास से जब उस आसन को हम सिद्ध कर देते है तब जो आनंद होता है उसे ऐश्वर्य भाव कहेते है।

जब शरीर का वजन कम करने के लिए भोजन की मात्रा पर नियंत्रण करते है ,लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि हम आवश्यकता से अधिक भूखे रहकर स्वस्थ पाएंगे ? दूसरा अभिगम -शरीर को जीवित रखने के लिए खुराक की पर्याप्त की आवश्यकता है लेकिन क्या इसका यह अर्थ है कि हम खाते ही जाएं ?

जिस तरह से हमने यहाँ शरीर की बात की वैसे ही यह नियम हमारे आसपास की दुनिया में और प्रकृति में भी एक समान ही लागु होता है.

 • हम ऊँचे ऊँचे आवास बनाने के लिए और शहरीकरण के लिए इतने उत्साहित हो चुके है है कि  हम जंगलों को काटते ही जा रहे है. क्या इस क्रिया की कोई विपरीत असर नहीं होगी ?

• क्या हम हमारे निजी स्वार्थ के लिए या थोड़े से लाभ के लिए हम कुदरत की सम्पदा जैसे जल , मिट्टी इत्यादि का अतिरेक शोषण कर रहे है ?

•किसी मशीन को हम ठीक से ओइलिंग नहीं करते लेकिन उस मशीन से अधिक उत्पादन पाने के लिए सतत उस मशीन को उपयोग में लाते है, थोड़े समय के लिए तो शायद वह मशीन अच्छा काम कर भी देगा लेकिन ऐसी स्थिति में कितना और अधिक समय वह मशीन अच्छा उत्पादन देगा ? क्या हम अपने शरीर के साथ भी कुछ ऐसा ही कर रहे है जैसा व्यवहार इस मशीन के साथ हम कर रहे है ?

सुपर मेन को तो हम सभी जानते है जो दुनिया का और दुसरे ग्रहों की दुनिया को भी सहायता करता है , जो कभी थकता नहीं , कभी रुकता नहीं , कभी हारता भी नहीं …क्या हम स्वयं को सुपर मेन मानकर स्वयं के हर कार्य को सिद्ध करने के लिए सुपर बल प्रयोग करेंगे तो क्या होगा ?

यदि हम नार्मल मनुष्य है तो फिर नार्मल क्यों नहीं बनना चाहते ? क्यों स्वयं को अधिक अनावश्यक बल प्रयोग करके खींचते है कि हर बार हमें सफल होना ही चाहिए ? क्यों स्वयं पर और अपनों पर इतना अधिक मात्र में बल प्रयोग करते है कि “गुब्बारा फट “जाये ?

“नार्मल” एक संतुलित स्थिति है – आपमें खूबियाँ है तो आप में खामियां भी है – आप में क्षमता है तो आपमें सीमाएं भी है – मुझे हर वस्तु का ज्ञान होना ही चाहिए या हर क्षेत्र में मुझे सफल होना ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है ।

अक्सर लोगों को यह कहेते हुए सुना है कि जब तक शरीर चलता है तब तक खूब काम कर लो , किन्तु क्या हम यह जानते है कि शरीर को लम्बे समय तक स्वस्थ रखने के लिए, कार्यशील और सबल रखने के लिए – पर्याप्त निंद्रा , उचित भोजन और समय समय पर विश्राम की भी आवश्यकता होती है ?

प्रक्रिया या कोई भी कार्य को पूर्ण करने के लिए न्यूनतम / मिनिमम समय और ज़रूरत अनुसार गति निर्धारित होते है । समय का बड़ी ही खूबी से व्यवस्थापन करना और कार्य कम से कम समय में अधिक अच्छा संपन्न हो ऐसी सामान्य अपेक्षा होती है। लेकिन अक्सर हम समय अवधि को आवाहन / चैलेंज मानकर कार्य को संपन्न करने के चक्कर में नियमों का उल्लंघन करके कभी कभी अनिच्छित परिणाम का निर्माण करते है ।

• अक्सर किसी कार्य को जल्दी से निबटाने के लिए हम उस कार्य को जल्दी जल्दी करते है लेकिन बहुत बार हमने अनुभव किया है कि जल्दी जल्दी कार्य करने से कुछ ऐसी त्रुटी हो जाती है कि वह पूरा कार्य फिर से करना पड़ता है।

• कभी कभी जल्दी जल्दी खाना बन जाएं इस उदेश्य से हम तेज़ आँच पर फटाफट खाना पका देते है . खाना तो जल्दी पक जाता है लेकिन स्वाद नहीं आता – कभी कभी समय से पहुँचने के लिए बहुत तेज़ गाड़ी ड्राइविंग करते है किन्तु इस दौरान हम अकस्मात होने की संभावना को आमंत्रित कर देते है ।

जो इन स्थितियों के लिए सत्य है वही हमारे मानव संबंधो के लिए भी सच है।किसी भी सम्बन्ध को बनाने के लिए समय देना होता है । और संबंधों को बनाये रखने के लिए समय के साथ साथ संबंधो में एक प्रकार का संतुलन भी होना आवश्यक है  

उदहारण :• परिवार के सदस्य की प्रगति के लिए एक परिवार पूरी तरह से उस सदस्य से सहयोग करता है ,लेकिन जब वही सदस्य अपने कार्यो में इतना व्यस्त हो जाता है तब संबंधों के संतुलन पर असर होता है ।

•एक बालक अपने माता पिता की बात को सुनता है लेकिन यदि माता पिता हर बार हर बात में बच्चे की केवल आलोचना ही करे तो ? संतुलन खो जाता है साथ में प्रतिक्रिया का नियम भी लागु हो जाता है । 

• हमारे मित्र या हमारे सहकर्मचारी हमारे सुज़ावों का स्वीकार करते है किन्तु यदि हम बार बार उनकी गलतियां या त्रुटी ही खोजते रहते है तो वे हमारी उपेक्षा करना शुरू कर देते है।

• कोई भी संबंध को स्थापित करने का अर्थ है एक दुसरे के साथ कुछ सहज समय बिताना । जब हम केवल “काम से काम की बातो” तक संवाद को सिमित कर देते है तब काम तो शायद हो जाता है किन्तु संबंध विकसित नहीं होता ।

जब हम किसी चीज पर एक ओर बल प्रयोग करते हैं या खीचते है , तो संतुलन खो जाता है और कदाचित विपरीत परिणाम मिलता है। जब हम बल प्रयोग करते हैं, तो परिणाम में विपरीत प्रतिक्रिया मिलती है ।

चलिए इसे समजने के लिए तराजू का द्रष्टान्त देखे – तराजू में यदि हम एक ओर हम बहुत कुछ भरते जाते है तो दूसरा अपने आप ही ऊपर चला जाता है। तराजू संतुलन खो देता है

जीवन में संतुलन को प्राप्त करने और इस सिद्धांत को आत्मसात  करने के लिए – इस तराजू की एक ओर को हम “प्रयासों का प्रतिनिधित” जानेंगे है जिसे हम उद्देश्य को पूरा करने के लिए कर रहे हैं, और दूसरा छोर वह है जो हम “प्राप्त करना “चाहते हैं।

यदि हम जो प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करेंगे, तो हम जो चाहते हैं, वह प्राप्त नहीं कर पाएंगे । यही कारण है कि अतीत में, कई लक्ष्यों को हासिल नहीं हो सका। क्योंकि हर चीज़ जो हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसे प्राप्त करने के लिए कुछ निर्धारित मात्रा के प्रयास , अभ्यास और श्रम की आवश्यकता होती है, जो न कम हो और न अधिक, बस उसकी कीमत ( worth ) के बराबर।

जब प्रयासों से इस संतुलन के समीकरण को हम समज नहीं पाते तो यही कारण है कि, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के बजाय, विपरीत परिणाम मिलता है ।

यह व्यवहार का सिद्धांत के यदि हम अपने जीवन में अमल करते है तो जीवन में ख़ुशी और सुख में  वृद्धि होगी । और यदि हम इस व्यवहार के सिद्धांत को नज़र अंदाज़ करते है तो पीड़ा और दुःख जीवन में उद्भव होने लगेंगे। आप इस व्यवहार के सिद्धांत को अमल में लाकर और इस सिद्धांत से विपरीत व्यवहार करके स्वयं ही देख लीजिए ।  

आपको भी इस सिद्धांत से कुछ जीवन में लाभ अनुभव हो तो अवश्य हमसे शेयर करे …धन्यवाद  

Kalindi Mehta

कालिंदी महेता की योग यात्रा के प्रारंभ में – “मन की बातें

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