मुक्ति बंधन …The Healing of Suffering – २ से आगे की बात यहाँ से पढना शुरू कीजिये
हम बस एक रेट रेस में भागे जा रहे है…क्यों?और हम किससे भाग रहे है ? यह suffering का चुनाव हमने क्यों किया है ? इन्हीं पर कुछ रोचक प्रस्तुति इस ब्लॉग में पढेंगे… continue …
इस रेट- रेस में हम सभी जुड़ गए है।इस रेस की finish line या winning line कहाँ है किसी को ज्ञान नहीं बस “सब भाग रहे है इसलिए मैं भी भाग रहा हूँ । मेरा रिश्तेदार दौड़ रहा है , मेरा दोस्त दौड़ रहा है इसलिए मैं भी दौड़ रहा हूँ।इस रेट- रेस में जो आगे है उसे भी तनाव है…जो पीछे है उसे भी तनाव है…जो दूसरे स्थान पर है उसे पहले स्थान पर कैसे पहुंचा जाएं उस बात की चिंता है और जो पहले स्थान पर है उसे अपना पहला स्थान बचाए रखने का तनाव है।आखिर यह रेस क्यों है ? क्यों हम सब भाग रहे है ?
आखिर हमें पाना क्या है ? आखिर हमें जाना कहाँ है ? आखिर हमारा उद्देश्य क्या है ?
इस रेस में जुड़ ने के पश्च्यात हमारे पास अपने लिए समय नहीं है और अपनों के लिए भी वक्त नहीं है। बड़ा सा घर ख़रीदा ,लाखों का डेकोरेशन करवाया ,घरको साफ़ सुथरा रखने के लिए दस नौकर की फ़ौज रख दी ,बाथरूम में बाथटब डलवाया , लिविंग रूम में झूला लगवाया किन्तु हम तो उस करोड़ों के घर में मेहमान की तरह ही रहतें है.रात को मखमली गद्दे पर सोने की फुर्सद नहीं ,दिन को डायनिंग टेबल पर शांति से बैठकर खाने का समय नहीं,बाथरूम में बाथटब लगवाया किन्तु उस में आराम से नहाने का आनंद लेने का वक्त नहीं तो फिर क्या लाभ ?
बात तो सही है ,किन्तु इस रेट- रेस के हर चूहे के मन की ख्वाहिश होती है की रिश्तेदारों को दोस्तों को यह दिखानेकी – देखों मैं रेस में तुम सब से कितना आगे हूँ।
स्कूल में ज्ञान पाने या कुछ सिखने से ज्यादा इस रेट- रेस में जुड़े हुए चूहों का हेतु होता है की – कौन कितने ज्यादा मार्क्स स्कोर करता है।
ऑफिस में डेड लाइन पूरी करने के लिए रेट- रेस के प्रतिस्पर्धी को किसी सहकर्मचारी के दुःख, दर्द ,उदासी, पीड़ा से कोई लेना देना नहीं है।
हम मनुष्य एक दुसरे के लिए इंसान नहीं बल्कि शुष्क प्रतिस्पर्धी हो गए है…हम कैसे मनुष्य है ? जो चूहे बन चुके है…
इस रेट- रेस के प्रतिस्पर्धी मानसिक स्तर पर “challenged” प्रतीत होते है , जो rat रेस में अंधों के जैसे भाग रहे है…लंगड़ाते हुए भी भाग रहे है…लड़खड़ाते हुए भी भाग रहे है।मन में कोई उत्साह नहीं है।आनंद नहीं है ,संतोष नहीं है फिर भी भाग रहे है शायद एक मृगजल छलावा के पीछे जीवन को ढोए जा रहे है…भागे जा रहे है।
मित्रों इस रेट- रेस का कोई अंत ही नहीं है अगर हम winning line तक पहुँच भी जातें है तब भी हम अकेले ही होते हो।
दोस्तों , अगर कुछ पलों के लिए अपने भागने की रफ़्तार को कुछ धीमी कर सकें… अपने लिए…अपनों के लिए…जीवन को थोड़ा सा जिया जाएँ…थोड़ा मुड़कर भी देखा जाएँ …की कौन अपना पीछे छूट गया है…कौन अपना गिर गया है…कौन अपना अकेला पड गया है…कौन अपना जो हमें पुकार रहा है…कौन अपना जो कमजोर है…किस को हमारे सहारे की उसे जरुरत है…कौन अपना थक गया है…किसी अपने के लिए रुका जाए, किसी अपने के हाथ को थामकर कुछ दुरी तक साथ में चला जाएँ, कुछ क़दमों की थकान को विश्राम दिया जाए…
रेस के नियम हमने ही तो बनाये थे अब हम चाहे तो कुछ बदलें जा सकते है … एकबार अपने मित्रों के साथ, अपनों के साथ, अपने परिवार के साथ, केवल यूँही दौड़ने का आनंद लीजिए…सब के साथ में कदम से कदम मिलाकर दौड़ने का आनंद ,एक दूसरे के लिए प्रतीक्षा करते हुए…कंधे से कन्धा मिलकर साथ में दौड़ने का मजा ही कुछ निराला है…अकेले जीत कर भी हम आखिर में तो हार ही जातें है… तो चलिए क्यों न अब की बार सबके साथ दौड़े ! कभी कभी मुड़कर भी देखें…अपनों की उम्मीदों पर खरे उतरे… प्रेम और अनुकंपा से सबके मन को जीत लें.
फॅमिली फोटो की आलबम में हर बार हमारी अनुपस्थिति का यह मतलब नहीं होता है कि हम फोटो खिंच रहे थे…(वह तो मन को बहलाने का excuse (बहाना) था…)तब प्रश्न उठता है कि क्या मैं सच में सफल हूँ ? भौतिक भोगविलास जिसे हम “success” कहते है ऐसा “so called success” शायद मिला भी हो तो फिर मन में यह पीड़ा क्यों ? सुखों की मात्राएँ जैसे जैसे बढती गयी पीड़ा की मात्र भी वैसे वैसे बढ़ती गयी . ऐसा क्यों ?
मित्रों, इच्छा या कामना एक जाल है । उदहारण के लिए – मेरे पास स्मार्ट फ़ोन है लेकिन अब भी मैं दुखी हूँ क्योंकि मेरे मित्र का स्मार्ट फ़ोन अधिक स्मार्ट है ,मेरी पीड़ा मेरे अभाव में है ।सुख और दुःख एक ही गाड़ी के दो पहिये है इसलिए हम पीड़ा के पहिये से तभी पीछा छुड़ा सकते है जब हम सुख के पहिये को त्याग करने को तैयार हो ।यह हम पर निर्भर करता है की हम कितनी मात्र में भौतिक सुखों को त्याग सकते है और कितनी मात्र में पीड़ा को बर्दाश्त कर सकते है।
यहाँ “सुख और आनंद ” के बीच का भेद समजना आवश्यक है। सुख ज्यादातर हमारी भौतिक इच्छाओं के साथ जुड़ा रहता है जब भौतिक कामनाएं या वासनाएं तृप्त होती है तब हम सुख का अनुभव करते है।किन्तु आनंद हमेशा भीतर के हर्ष के साथ जुड़ा रहता है , आनंद का अनुभव आइसक्रीम खाने जैसा है , जो आइसक्रीम खाता है उसे ही आइसक्रीम की शीतलता का , उसके स्वाद का और उसकी मिठास का आनंद मिलता है …बाकी आइसक्रीम को चाहे कोई कितना ही सुन्दरता से वर्णन कर ले – आइसक्रीम का अनुभव नहीं होता।
आनंद एक खिले हुए फुल को देखकर भी अनुभव होता है, किसी के चहरे पर मुस्कान देखकर भी हर्ष का अनुभव होता है…आनंद किसी को कुछ देकर भी अनुभव होता है जब की सुख अधिकतर कुछ पा कर अनुभव होता है.आनंद की अनुभूति किसी भी प्रकार के अवलंबन पर निर्भर नहीं होती.
कहानी में जब यात्रीने गाड़ी को त्याग दिया और केवल प्राणी पर सवार होकर वह मंजिल की दिशा में प्रयाण करता है तब सरलता से मंजिल तक पहुँच गया और इस सफर का इस सफर में जिन रास्तों से वह गुजरा उन रास्तों के हर मोड़ का उसने लुफ्त उठाया…कहीं वादियाँ देखी तो कहीं आसमान की सुन्दरता देखि , मंजिल तक पहुँचने के उस प्रवास में कितने प्यारे हमसफर मिले…मित्र , हितेच्छु ,जीवनसाथी ,आलोचक और मार्गदर्शक मिले…प्रकृति के हर रुप का रसपान किया और मंजिल को पाया।
यहाँ आवश्यक है यह समजना की “चाहत और जरुरत” के बीच में क्या अंतर है ?
उदहारण के लिए – जैसे मुझे कपडे अपने शरीर के रक्षण के लिए चाहिए तो कपडे मेरी जरुरत है ।यहाँ कपड़े मेरी जरुरत है लेकिन जब मैं यह सोचना शुरू करू की कौन सी ब्रांड के कपडे पहेनु जिससे मेरी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो ?तो वह मेरी चाहत है।जब जरूरतें पूरी होने लगती है तब ख्वाहिशे या चाहते जागने लगती है ।जरुरत जब पूरी होती है तब आनंद मिलता है लेकिन जब चाहते अधूरी रहती है तब पीड़ा होती है। कहते है कि – जरूरतें तो फकीरों की भी पूरी हो जाती है और ख्वाहिशें तो बादशाहों की भी अधूरी रह जाती है।
जब तक हम जरुरत के लिए कार्य करते है हमारा विकास होता है तब हम जीवन के प्रति या कार्य के प्रति आनंद का अनुभव करते है ।लेकिन जैसे ही हम चाहत के क्षेत्र में प्रवेश करते है ; हम अभिलाषाओं के और कामनाओं के जालें में फँस जाते है, तब जीवन से आनंद अद्रश्य होने लगता है और अभाव जागने लगता है। कभी कभी हम जिसे सुख मानते है वह आभासी होता है और पीड़ा केवल हमारे नजरिये से अधिक कुछ नहीं होती…दोनों ही अस्थायी ।
यहाँ इच्छा को त्यागने का अर्थ अपनी विकास की गति को धीमा करना या प्रगति के पथ पर कार्य न करना या जो है उसी में खुश हूँ ऐसे बहाने देकर आलस्य का समर्थन करना नहीं है बल्कि अपने जीवन के भौतिक स्तर के विकास के साथ साथ आन्तरिक विकास भी उतना ही महत्वपूर्ण है …
यहाँ दो यात्रा है – एक यात्रा जो प्राणी और गाड़ी पर सवार यात्री की है (प्राणी और गाड़ी की यात्रा तो जरावस्था के साथ जुडी यात्रा है) और दूसरी यात्रा…यात्री के भीतर के यात्री की यात्रा…यात्री के भीतर का यात्री तो अनंत यात्रा का यात्री है।
दोनों ही यात्रा में यात्री को पहेचानों।
गाड़ी यात्री की पहेचान नहीं है ।
यात्री के भीतर के यात्री की पहेचान तो गाड़ी में सवार यात्री को भी नहीं है – किन्तु इस अनंत यात्रा के यात्री के साथ कभी कुछ क्षण का परिचय हो जाए तो यात्रा का हेतु सार्थक हो जायेगा …
जितना बडा प्लोट होता है, उतना बडा बंगला नही होता, जितना बडा बंगला होता है, उतना बडा दरवाजा नही होता,जितना बडा दरवाजा होता है ,उतना बडा ताला नही होता,जितना बडा ताला होता है,उतनी बडी चाबी नही होती परन्तु चाबी पर पुरे बंगले का आधार होती है। इसी तरह हमारे जीवन मे बंधन और मुक्ति ,सुख और दुःख का आधार मन पर ही निर्भर होता है। मन हमारे जीवन की चाबी है
जिसके हाथ में चाबी है वह ताले को खोल सकता है. मन master key है जिससे हर ताला खुल सकता है.
मित्रों ,केवल सजग रहना है
हमारे कार्यों से, व्यवहार से हम हर्ष और आनंद का अनुभव कर पाते है… एक स्थायी आनंद … स्वयं के और दूसरों के जीवन में उमदा योगदान करके… “The joy of Giving …”जिससे आंतरिक शांति का अनुभव हो और हम शक्तिशाली जीवन की दिशा में अपने आपको विकसित करें और उत्क्रांती में सहभागी बनें.
सबका मंगल हो सबका कल्याण हो