“If you pursue pleasure, you enchain yourself to suffering. But as long as you do not harm your health, enjoy without inhibition when the opportunity presents itself.”
“केवल सुख की खोज में जीवन व्यतीत करना अंततः दुख का कारण बन सकता है, लेकिन जब भी अवसर मिले और आपके स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर न हो, तब बिना किसी निषेध या रूकावट या झिझक सुख का लुफ्त लेना चाहिए।”
(स्वास्थ्य का अर्थ यहाँ केवल शारीरक स्वस्थता से नहीं है , स्वास्थ्य की एक व्याप्त व्याख्या है – सामाजिक स्वास्थ्य – मानसिक स्वास्थ्य – आर्थिक स्वास्थ्य – भावनात्मक स्वास्थ्य – नैतिक स्वास्थ्य – स्वास्थ्य का अर्थ केवल स्वयं के स्वास्थ्य तक नहीं बल्कि दूसरों के स्वास्थ्य की बात भी परोक्ष रूप से जुडी हुई है )
यह सिद्धांत पहली बार पढ़ने पर चौंकाने वाला लग सकता है, क्योंकि सिद्धांत कह रहा है, “आप सुख का लुफ्त लो, आपको केवल अपने स्वास्थ्य को बनाये रखना है।” वास्तव में, यह सिद्धांत समझाता है कि अत्याधिक सुख में रत होने से अक्सर हमारे स्वास्थ्य के लिए – हमारे जीवन के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए और राष्ट्र के लिए “सुख ही हानिकारक” होने लगता है। * क्या आप कोई उदहारण शेयर कर सकते है ?
एक आश्रम में गुरु को यात्रा पर जाना पड़ा। प्रस्थान से पहले उन्होंने अपने सभी शिष्यों को एक जादुई खीर भरा बर्तन भेंट किया। इस खीर की विशेषता यह थी कि प्रत्येक शिष्य जितना चाहें उतनी खीर खा सकता है और फिर भी बर्तन से खीर ख़त्म नहीं होगी । केवल एक शर्त है कि सभी शिष्य प्रतिदिन केवल एक बार ही खीर खा सकते थे । एक शिष्य ने खीर को एक कटोरी में खाने के लिए ले लिया । पहला खीर निवाला मुंह में लेते ही वह उसके अद्भुत स्वाद से चकित हो गया और पूरा खीर का कटोरा चट कर गया। उसने जल्द ही अगले दिन की खुराक के बारे में सोचना शुरू कर दिया। प्रत्येक दिन वह अपना हिस्सा खत्म करता किन्तु खीर के प्रति उसका जुनून बढ़ता जाता। अंत में, उसने तय किया कि वह इतनी खीर खाएगा कि अगली बार तक संतुष्ट रहे। उसने एक बड़ा बर्तन लिया और पूरा बड़ा बर्तन भरकर खीर खा ली – इतनी ज्यादा कि उसका स्वास्थ्य ख़राब हो गया – वह मृत्यु के कगार पर पहुंच गया। इस घटना की याद में आश्रम के द्वार पर एक पट्टिका लगाई लिखा: “जो लोग चीजों को पाने की लालसा रखते हैं और उन्हें संजोकर रखने की इच्छा रखते हैं, वे अक्सर पीड़ा या कठिनाई का सामना करते हैं। “
दुसरे शिष्य ने देखा कि क्या हुआ था, उसने खीर को चखने की भी इच्छा नहीं की, हालांकि वह इसे चखने की उतनी ही इच्छा रखता था । लेकिन उसने सोचा: “सुख दर्द लाता है। इसलिए, सुख न लेना ही बेहतर है ताकि बाद में पीड़ा न हो। किन्तु जैसा कि हमने देखा, एक कामना को दमन करेंगे तो वह दूसरी चीज की ओर ले जाती है।” इस प्रकार दुसरे शिष्य ने पूरे दिन खीर न खाने के बारे में सोचा परोक्ष रूप से खीर को ही सोचा , उसने खीर के तालाब सपने देखे लेकिन एक निवाला नहीं खाया। एक दिन, वह और अधिक सहन नहीं कर सका और उसने अद्भुत खीर को चख लिया। आश्रम के द्वार पर उन्होंने एक और पट्टिका लगाई। लिखा : पाप खीर खाने में नहीं होता, पाप हमारे मन की इच्छाओं और कल्पनाओं में होता है। दोष या पाप किसी बाहरी चीज़ में नहीं होता, असल में, दोष हमारे मन के भीतर की उन इच्छाओं और कल्पनाओं में होता है जो हम सोचते हैं, असली समस्या हमारे विचारों और मानसिकता में होती है, न कि वस्तुओं में।
अंत में, तीसरे शिष्य ने आश्रम के जो कार्य उसे करने थे वे किये और काम करने के बाद वह खीर जिस कमरे में रक्खी थी उस कमरे में पहुंचा । भूख लगी थी उसने एक कटोरी खीर लिया और उसने खीर खाया और वह जल्द ही खीर को भूलकर अपने कार्यों में लग गया ।
जब गुरु लौटे , तो उन्होंने आश्रम के द्वार पर लगी दो पट्टिकाएँ देखीं और जब उन्होंने सुना कि खीर ने कितनी समस्याएं पैदा कीं, तो उन्होंने एक तीसरी पट्टिका लगाई। लिखा : विवेकवान के लिए खीर केवल एक आहार का मामूली निवाला होती हैं।” अर्थात कोई कितना भी शक्ति या ज्ञान रखता हो, अगर वे संतुलन और विवेक से रहित हैं, तो वे एक जैसे परिणाम का सामना करेंगे।
“यदि हम सुख का पीछा करते हैं, तो दर्द और पीड़ा की बेड़ियों में स्वयं को जकड़ लेते है – “सुख का पीछा नहीं करना चाहिए इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि आप जीवन का आनंद नहीं ले सकते , किन्तु महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि “ क्या सुख की निरंतर खोज ही जीवन की महत्त्वपूर्ण खोज है ? या क्या सतत सुख प्राप्ति के विचारों में ही रत बने रहेना जीवन का उदेश्य होना चाहिए ? क्या सुख ही सर्वस्व है ?
उदहारण – जब हम तेज धुप और गर्मी में काम करके घर आते है और तब कोई हमें वरियाली का शरबत पिलाता है तो कितना सुख मिलता है ? किन्तु एक या दो गिलास वरियाली का शरबत पिने के बाद तीसरा वरियाली का वही शरबत क्या हमें उस स्तर का सुख देगा जो सुख पहेले और दुसरे शरबत के गिलास में था ? ( Law of Diminishing Marginal Utility) इस का अर्थ यह है कि सुख की अनुभूति दुःख या पीड़ा की तीव्रता पर निर्भर है , जितना अधिक प्यास का दुःख उतना अधिक शरबत का सुख अर्थात सुख की परिभाषा दुःख से मुक्ति के अनुपात में है – व्यक्ति में जो “अभाव का दुःख” है वह प्राप्ति का सुख है । किन्तु सुख क्या है ? यह व्यक्तिगत व्याख्या है ।
यहाँ सुख और आनंद (Pleasure and Happiness ) के बीच का अंतर समजना होगा।उदहारण – आप के पास एक ही आइसक्रीम खरीदने के पैसे है और आप एक आइसक्रीम खरीदते है। किन्तु जैसे ही आप उस आइसक्रीम खाने की शुरुआत करने ही वाले हो आपके सामने एक छोटा सा बच्चा खड़ा है ।गर्मी आपको भी लग रही है और उस बच्चे को भी। आप उस बच्चे को आइसक्रीम ऑफर करते है और वह बच्चा एकदम खुश हो जाता है और आपसे आइसक्रीम ले लेता है। अब आपके पास दूसरा आइसक्रीम खरीदने के पैसे नहीं है। अब आपके सामने ही वह बच्चा आइसक्रीम खा रहा है। आप उसे देख रहे हो। इस वक्त आपके मन में गर्मी की पीड़ा और आइसक्रीम खोने की कोई आत्मग्लानी नहीं है।बल्कि उस बच्चे को आइसक्रीम खाते देखकर आपका मन आनंद अनुभव कर रहा है। यदि आप आइसक्रीम खाते तो कुछ समय आपको ठंडक का सुख मिलता, किन्तु इस घटना को आप जब जब जीवन में याद करोगे आपको सदा आनंद की अनुभूति होगी । यही अंतर है सुख और आनंद (Pleasure and Happiness ) में। कहेते कि सुख की अनुभूति कुछ “प्राप्त होने में” है और आनंद की अनुभूति “कुछ देने में” है । सुख “प्राप्ति में” है और आनंद “मुक्ति में” है । आनंद एक आंतरिक स्थिति है – आनंद एक STATE है और सुख के प्रकार होते है । सुख एक CONCEPT है – जैसे मनसुख , धनसुख, कामसुख ,नामसुख और नैन सुख।
सिद्धांत कहेता है कि हमेशा सुख के बारे में ही न सोचें , सुख की खोज में ही रत न रहें , सुख के लिए बलिदान न करें , स्वयं के सुख के लिए किसी को नुकसान न पहुँचाएँ और सुख के लिए अपनी गरिमा या आत्मा को न बेचें। अर्थात आप अपने वादे , कर्तव्य, दायित्व और जिम्मेदारियों को न भूलें। सुख प्राप्ति को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा उदेश्य बनाना हमें सुख का गुलाम बना सकता है ।
जीवन का आनंद लेना और सुख का अनुभव करना एक प्राकृतिक और मानवीय सहज इच्छा है। लेकिन जब सुख का पीछा करते रहेना ही जीवन का मुख्य उद्देश्य बन जाता है, तो हम सुख को एक देवता के रूप में स्थापित कर देते हैं। अर्थात हम अपने मन , भावनाओं और शरीर को सुख के प्रति इतना विवश और सभान कर देते हैं कि सुख ही हमारी प्राथमिकता बन जाता है। यह मानसिकता आपको उस सुख की जंजीरों में जकड़ लेती है, जिससे दर्द और पीड़ा अनिवार्य रूप से आती है। हमारा मन, भावनाएँ और शरीर सुख के प्रति हमेशा सचेत और सजग रहें ताकि हम सुख को एक देवता न बना लें। जीवन में “सुख का उपभोग” अवश्य करे , किन्तु “सुख का उपभोग” एकमात्र प्राथमिकता न बनाएं। अपनी इच्छाओं और संतोष के बीच एक विवेकपूर्ण संतुलन बनाए रखें, ताकि आप सुख और पीड़ा के चक्र से मुक्त रह सकें।
सुख और दुःख, वे एक ही सिक्के के दो पहलु हैं, किन्तु समस्या यही है कि हम एक को चाहते हैं और दूसरे को नहीं चाहते। हम सुख की खोज करते हैं , हम सुख का पीछा करते हैं और एक बिंदु तक पहुँच जाते है किन्तु उस एक बिंदु के बाद जहाँ उस सुख का अनुभव “सुख” जैसा नहीं होगा । जितना अधिक आपने अपना सुख भोगा, उतना ही अधिक आप इसके दास बन जाते है , दुःख और पीड़ा भी ज्यादा होगी। जितना अधिक आप इस सुख की खोज करेंगे, उतना ही अधिक दुःख रास्ते में आपको मिलेगा।
जाल का सिद्धांत (The Principle of the Trap) – एक मुसाफिर ने एक गाँव में रात्री को रैन बसेरा किया । रात्री को गाँव वालों के साथ भोजन करने के बाद यहाँ वहां की बातें करते करते उसे पता चला कि उस गाँव में ऐसा नियम था कि यदि गाँव में कोई नया व्यक्ति आये और वह उस गाँव में अपना बसेरा करना चाहे तो गाँव वाले उसे जमीन भेंट देते थे । लेकिन इस शर्त पर कि वह व्यक्ति सुबह सूर्योदय के साथ दौड़ना शुरू करे और एक लकड़ी से जमीन पर मिटटी में रेखा बनाता जाए और सूर्यास्त तक उसे वापस उसी स्थान पर आना होगा , जहाँ से उसने दौड़ना शुरू किया था । इस दौड़ के दौरान उस व्यक्ति ने जितनी जमीन पर अपनी लकड़ी से रेखा बनायीं होगी उतनी जमीन उसकी हो जायेगी। मुसफ़िर यह सुनकर दुसरे दिन दौड़ने को तैयार हो गया । दुसरे दिन सूर्योदय होने पर पूरा गाँव जमा हो गया , यह देखने कि मन का इतना भला मुसाफिर कितनी जमीन पर अपनी लकड़ी से रेखा कर पाता है।
मुसाफिर ने दौड़ना शुरू किया।लकड़ी से जमीन पर रेखा खींचता हुआ वह दौड़ने लगा। कुछ समय में तो वह गाँव वालों की आँखों से ओजल हो गया। अब धुप सर पर चढ़ गयी थी किन्तु मुसाफिर का कोई आसार नहीं दिख रहा था। धीरे धीरे शाम ढलने की बेला नजदीक आ रही थी किन्तु मुसाफिर के लौटने का कोई आसार नहीं दिख रहा था। गाँव वाले चिंता में पड़ गए कि वह भला मुसाफिर गया तो कहाँ गया ? लेकिन सूर्यास्त होने में कुछ ही क्षण बचे थे कि एक गाँव वाले को मुसाफिर दिख गया। सबने मिलकर उसका हौंसला बढ़ने को तालियाँ बजायी कहा “ प्यारे मुसाफिर जल्दी आ जाओ सूर्यास्त होने वाला है ,लेकिन मुसाफिर वहीँ ढेर हो गया और मरण के शरण पहुँच गया ।गाँव वाले फिर से उदास हो गए – कहा कि ये भी सूर्यास्त तक यहाँ पहुँच नहीं पाया ।*अब आप सोचकर बताये कि मुसफ़िर सूर्यास्त तक उस जित की रेखा तक क्यों नहीं पहुँच पाया ?
समस्या उन चीजों या स्थितियों में नहीं है जिनकी हम इच्छा करते हैं, बल्कि इस बात में है कि हम उनके बारे में क्या सोचते हैं और हम उनसे कैसे जुड़े होते हैं।*
यदि हमें वह सुख जब मिलता है जिसकी हम खोज कर रहे हैं, तो वह हमें केवल कुछ क्षण या समय अवधि के लिए संतुष्ट करता है और फिर हमें एक नई खोज में फंसा देता है। फिर हमें लगता है कि हमें इससे भी अधिक ख़ुशी अब किसी विशेष वस्तु को प्राप्त करके ही मिलेगी । और फिर जब तक हमें वह नहीं मिलता हम उसकी खोज में उलज कर रह जाते हैं, इस प्रकार हम पहले अपनी प्रारंभिक लालसा और फिर अपने नए असंतोष या अभाव के साथ दोगुने बंधन में बंध जाते हैं। – क्या हम कह सकते है कि सुख की खोज में या सुख का पीछा करते रहना एक मृग तृष्णा है ?*
अब दूसरा पहलु यह है कि सुख में रत रहेना – यह भी दुखदायी और हानिकारक हो सकता है – ज़रूरी नहीं कि वैभव शाली जीवन, धन ,गाड़ी, बंगला ,गहने ,कपडे या सुविधाएं ही सुख की व्याख्या में आते है – हम सुख को खाने में स्वाद के रूप में , कपड़ों में फेशन के रूप में , प्रवास में एसी ट्रेन में ट्रेवल के रूप पसंद करते है हम अपने पसंद के लोगों के साथ समय बिताने में सुख को अनुभव करते है , हम लेटेस्ट फीचर वाले मोबाइल को पाकर सुख पाते है , सोशलमिडिया पर अपने स्टेटस को प्रदर्शित करने में सुख का अनुभव करते है। हम ब्रांडेड चीजों को खरीदकर सुख को खरीदने का अनुभव करते है। luxurious holidays मनाना भी सुख की अनुभूति है – यह सारे हमारे सुख है ।
किन्तु अक्सर हमें सुखो से वर्जित होने के लिए कहा जाता है – सुखो को त्यागना गुण कहा जाता है , हमें सुखो के उपभोग के लिए अपराधभाव अनुभव करवाया जाता है तब हमारे मन में प्रश्न जागते है कि * क्या सुखो का भोगना दोष पूर्ण है ? कदाचित हाँ भी (जब सुख का अतिरेक उपभोग करने लगे तब ) और कदाचित ना भी (कभी कभी बिना सुख भोगे वैराग्य भी परिपूर्ण परिणाम नहीं दे पाता )
क्योंकि सुख एक व्यक्तिगत विवेक का विषय है । यदि हमारी सुखो के प्रति लालसा है तो हम स्वयं के दायित्व पर अपना ध्यान नहीं दे पाएंगे , हम सुख प्राप्ति की “रेट रेस” में जुड़ जाते है । हम सुख के पीछे भागते है तो हमारे विचार अधिकतर उस सुख की प्राप्ति में ही व्यस्त हो जाता है । जिस कारण दिन रात हमारा मन उसी विचारो में व्यस्त होने से मन में बेचैनी , पीड़ा और अभाव का अनुभव करते है । ( The healing of suffering के ब्लॉग को ज़रूर पढ़े तो सुख का concept अधिक मंथन कर पायेंग )
उदहारण : एक शानदार पार्टी मित्र के घर रक्खी है , सुबह से मेरा मन उस पार्टी में जाने की उत्कंठा में है लेकिन किसी कारणवश मैं पार्टी में नहीं जा सकुंगी इस बात ने मुझे भीतर से व्याकुल कर दिया।
सुख को पाने की व्याकुलता इस प्रकार से हमारी हताशा या उदासी में बदल जाती है …यह भी वर्तमान में उपभोग करने वाला सुख नहीं था , यह तो भविष्य में सुख मिलेगा इस कल्पना का सुख था – काल्पनिक सुख भी न मिले तो वह सुख न मिलने की पीड़ा हमें उतना ही निराशा कर देती है ।
हर सुख हमारे लिए अच्छा ही हो ऐसा जरूरी नहीं है कुछ सुख हमारे दुःख का और पीड़ा का कारण बन जाता है । ऐसे सुख के भी कई प्रकार है जो शुरुआत में सुख की प्रतीति करवाते है किन्तु बाद में हमारी सेहत के लिए हानि कारक साबित होते है।जैसे सोशियल मिडिया की प्रवृत्ति पर बड़ा ही गर्व होता है, बहुत अच्छा लगता है।जब पोस्ट किये गए फोटो और रील को लोग लाइक करते है , इस प्रवृति में इतना मज़ा आता है कि घंटों तक लोग सोशियल मिडिया पर लगे रहेते है कि स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम होते है ।जब तक मज़ा या सुख की मात्रा संयमित होती है ,उसका अपना मज़ा होता है ।
उदहारण : छुट्टी के दिन कभी कभी बाहर घुमने जाना और ठेले पर चाट ,वड़ापाव पावभाजी अच्छा लगता है , मज़ा भी आता है , कभी कभी कोई एक अच्छी फिल्म टीवी पर आ रही है वह देर रात तक देखि अच्छा लगा और मज़ा भी आया । यहाँ प्रस्तुत उदहारण में मज़ा और सुख की अनुभूति हुई किन्तु यहाँ किसी भी प्रकार की कोई सुख को पाने की या मज़ा को अतिरेक लूटने की व्याकुलता या भूख नहीं थी । जो स्थिति थी उस में मज़ा पा लिया , यह एक संयमित व्यवहार था फिर भी सुख का अनुभव हुआ । यहाँ ऐसा कुछ भी अतिरेक नहीं था जिससे हमारे या किसी के भी स्वास्थ्य पर कोई विपरीत असर पड़े । यह सिद्धांत कहता है कि अपने आपको सुख पाने से रोको नहीं , सुख पाने में कोई बुराई नहीं है । संयम और सन्तुल के साथ सुख भोगने का हर अवसर या प्रवृत्ति या मज़ा सुख भरी स्थिति हो सकती है ।
“सुख का पीछा न करना” इसका अर्थ बिलकुल यह नहीं है कि आप अपना विकास न करो …अपने कार्यो और व्यापार में कोई प्रगति न करो …सुख का पीछा न करने का अर्थ है जीवन के प्रति ,स्वयं के प्रति, परिवार के प्रति, व्यवसाय के प्रति सजगतापूर्वक संतुलन बनाकर आप जीवन का आनंद भी लो और सर्वांग विकास में भी जुडो।
सबका मंगल हो सबका कल्याण हो