9th Principle of Liberty / The Principle of the Responsibility / The Principle of Cause and Effect  

“When you harm others you remain enchained, but if you do not harm anyone you can freely do whatever you want.”

“जब आप दूसरों को “हानि पहुंचाते” हैं, तो आप स्वयं जंजीरों में बंधे रहेते हैं, लेकिन जब आप किसी को हानि नहीं पहुंचाते, तो आप जो चाहें स्वतंत्र रूप से कर सकते हैं।“  

(“हानि पहुंचाते है” – से क्या अर्थ है ?)*

यदि आप दूसरों के लिए समस्याएँ पैदा करते हैं, तो आपको अनिवार्य रूप से नकारात्मक परिणामों का सामना करना पड़ेगा।मूल रूप से, आपके नकारात्मक कार्य नकारात्मकता का एक चक्र उत्पन्न करते हैं जो अंततः आपके जीवन को ही प्रभावित करता है।

यह सिद्धांत कहता है कि यदि आप दूसरों के लिए समस्याएँ पैदा करते हैं, तो परिणामस्वरूप “दूसरे लोग आपके लिए समस्याएँ पैदा करेंगे।”इस मामले में कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं:-

  • ज़रूरी नहीं कि वह “दुसरे लोग” वही लोग होंगे जिनको आपने हानि पहुंचाई हो ,वह “दुसरे लोग” कोई भी हो सकते है।
  • अगर आपने आज किसी को हानि पहुंचाई है, तो यह ज़रूरी नहीं है कि आज, कल, या एक हफ्ते में ही आपको उस हानि की प्रतिक्रिया स्वरूप किसी परिणाम का सामना करना पड़े। इसके लिए कोई निश्चित समय अवधि नहीं होती है; वह समय कभी भी आ सकता है।
  • आपने जिसे हानि पहुंचाई हो उस हानि की मात्रा जो भी रही हो किन्तु जब हमें हमारे द्वारा की गयी उस हानि का फल मिलेगा तव यह निश्चित नहीं है कि उसकी मात्रा क्या होगी।
  • हमारे कर्मों का परिणाम केवल हमें ही भुगतना पड़ता है। चाहे हम कितनी भी कोशिश करें, हमारे कर्मों के परिणाम किसी और पर लागू नहीं हो सकते। ( डाकू रत्नाकरऔर नारद मुनि की कहानी ) कहा जाता है कि माता पिता या परिवार के कर्म उनकी संतानों को या उनकी पीढ़ियों को भुगतने पड़ते है क्या ऐसा है ? हम यह कह सकते है कि कर्म का फल तो “कारण” अर्थात कर्म करनेवाले को ही भुगतना पड़ता है किन्तु उस कर्म का /कारण का प्रभाव उस कर्म के करता के साथ जुड़े हुए लोगों के जीवन को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करता है। * चर्चा और द्रष्टान्त आमंत्रित है
  • आपके द्वारा किए गए कर्मों का फल अलग-अलग होता है और एक कर्म का प्रभाव दूसरे कर्मों से नहीं बदलता। उदाहरण के लिए, यदि आपने किसी का विश्वासघात किया है, तो इसके परिणाम को आपको स्वयं ही भुगतना पड़ेगा, चाहे आप बाद में किसी गरीब की सहायता करें।(If i killed few living being and then I become “Influencer” of Movement Being Human ? Can My Karma compensated ? )

दूसरी ओर, यदि हमारे कार्य किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं, तो हम अपनी इच्छाओं और लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि नैतिक आचरण यह सुनिश्चित करता है कि हम किसी को कष्ट या संघर्ष में नहीं डाल रहे हैं, जिससे हम बिना नकारात्मक परिणामों के डर अधिक स्वतंत्रता से जी सकते हैं।

ब्रह्मांडीय न्याय वयवस्था बहुत ही सुदृढ है. प्रत्येक कर्म के फलीत होने का समय निर्धारित है।हर कारण का प्रभाव एक निर्धारित समय पर प्रकट होगा।

यह सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि आपके कार्यों का (व्यवहार का,वर्तन का,वचन का,वाणी का) दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसे समझना महत्वपूर्ण है और यह सुझाव देता है कि सच्ची स्वतंत्रता उसी जीवन से आती है जो दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचाता। ऐसा करके, आप अपने और अपने आस-पास के लोगों के लिए एक सकारात्मक वातावरण बनाते हैं।

यदि हम दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं, तो अपराधबोध, नाराजगी, परिणामों का डर, दूसरों के प्रति अविश्वास हमें घेर लेते हैं। और हम इन नकारात्मक भावनाओं के बंदी बन जाते हैं।

याद रखें, ब्रह्मांडीय सिद्धांत कहता है, यदि आप किसी को भी नुकसान पहुंचाते हैं तो आप स्वयं को (उस कर्म में) जकड़ लेते हैं। ब्रह्मांडीय सिद्धांत कहेता है कि सभी “कारणों” के परिणाम होते हैं (यहाँ “कारण” अर्थात सरल भाषा में हमारा कर्म और परिणाम अर्थात कर्म का फल) यदि हमने उचित किया , तो “कारण और प्रभाव” Law of Cause and Effect के ब्रह्मांडीय कानून के अनुसार आपके पास “उचित वापस” आएगा; यदि आपने नुकसान पहुंचाया, तो कई गुना बढ़कर “नुक्सान वापस” आएगा। जैसा कारण वैसा ही परिणाम लौटेगा – ऐको का नियम * चर्चा आमंत्रित *  

Law of Cause and EffectLaw of Cause and Effect – कारण और परिणाम अर्थात जो भी कर्म – मन, वचन, वाणी, व्यवहार से या फिर कर्मेन्द्रियों से हम करते हैं वे कारण का निर्माण करते है , और एकबार जब कारण (कर्म) निर्माण हो गया तो फिर उसका परिणाम जरूर मिलता है।

#हमारे मन में जैसा भाव होता है वैसी ही उर्जा का हम एक प्रभा मंडल अपने आसपास बनाते है यह उर्जा में चुम्बकीय तरंगे होती है और वे तरंगे “समान फ्रिक्वंसी वाली” तरंगों को आकर्षित करती है दूसरी ओर “समान फ्रिक्वंसी वाली”  तरंगे प्रतिसाद देते हुए आपकी तरफ आकर्षित होती है

यह एक प्राकृतिक नियम है। जैसा बीज हमारे द्वारा बोया जाता है हमें पौधा भी वैसा ही मिलता है और फल भी उसी पौधे का मिलता है, कर्मों के भी परिणाम वैसे ही मिलते है जैसे कर्म किये होते हैं। जैसा घड़ा घड़े कुम्हार उतना ही जल समाए, बोया बीज बबूल का आम कहाँ से पाए ?

कारण में उसका प्रभाव भीतर ही सुप्त पड़ा होता है और प्रभाव में भी कारण कहीं न कहीं बना होता है – जैसे आग लगती है तो धुआँ निकलता है और कई बार धुआँ देखते है तो आग लगी होगी ऐसा कहेते है ।

इस कर्म चक्र को रोकें कैसे ? वैसे तो इस कर्म चक्र को रोकना संभव नहीं है क्योंकि हिन्दू सनातन कहेता है कि कर्म तो हर सांस के साथ हर विचार के साथ बनता ही जाता है , कर्म फल का हिसाब आज का या कल का या पिछले जन्म का नहीं है वो तो कई जन्मों का है , कर्म का जाल इन्टरनेट जैसा है जो वास्तव में दीखता नहीं किन्तु दुनिया के हर कोने में- हर देश में- हर व्यक्ति से- हर घर से जुड़ा है । मोबाइल में भी, लेपटोप में भी, कोम्पुटर में भी आप जितना भी सोच सकते हो उन सभी क्षेत्र में इन्टरनेट जुड़ा है , मोबाइल का instrument बदल दीजिये फिर भी नए फ़ोन के instrument में जैसे ही सिम कार्ड एक्टिवेट हुआ कि अधिकतर सब पुराने डाटा इन्टरनेट जोड़ देता है गूगल क्लाउड या कोई और तरीके से वहां सालों के पुराने फोटो भी मिल जाते है तो फिर शरीर बदल देने से पुराने कर्मों का हिसाब कैसे मिटेगा ?

कर्मों के जाल से स्वयं को थोडा सा मुक्त करना है तो केवल एक ही तरीका है – प्रतिक्रिया मत दो ।

अपने द्रष्टिकोण दूसरों को बताने की उत्सुकता को रोके – बिना मांगे सलाह न दे – दूसरों के विचारों को केवल सुने उस पर सहमत असहमत चर्चा दलीलें न करे ऐसा करके हम अपनी प्रतिक्रिया पर नियंत्रण पा लेते है और कर्म के जाल से कुछ अवधि के लिए मुक्त रह पाते है ।

एक मज़ेदार कहानी – एक राजा ब्राह्मणों को महल के आँगन में भोजन करा रहा था । राजा का रसोईया खुले आँगन में भोजन पका रहा था ।उसी समय एक चील अपने पंजे में एक जिंदा साँप को लेकर राजा के महल के उपर से गुजरी । तब चिल के पँजों में दबे साँप ने अपनी आत्म-रक्षा में चील से बचने के लिए अपने मुख से ज़हर निकाला । उस समय राजा का रसोईया जो खुले आँगन में ब्राह्मणों के लिए खाना पका रहा था, उस रसोई में साँप के मुख से निकली ज़हर की कुछ बूँदें खाने में गिर गई ।किसी को कुछ पता नहीं चला । सभी ब्राह्मणों की ज़हरीला खाना खाते ही मौत हो गई।

ऐसे में अब यमराज के लिए भी यह फैसला लेना मुश्किल हो गया कि इस पाप-कर्म का फल किसके खाते में जायेगा ….???

राजा…जिसको पता ही नहीं था कि खाना ज़हरीला हो गया है…या रसोईया…जिसको पता ही नहीं था कि खाना बनाते समय खाना ज़हरीला हो गया है….या वह चील….जो ज़हरीला साँप लिए खाने के उपर से गुज़री….या वह साँप….जिसने अपनी आत्म-रक्षा में ज़हर निकाला….बहुत दिनों तक यह मामला यमराज की फाईल में अटका पड़ा रहा।

फिर कुछ समय बाद कुछ ब्राह्मण राजा से मिलने उस राज्य मे आए और उन्होंने किसी “एक व्यक्ति” से महल का रास्ता पूछा । उस “एक व्यक्ति” ने महल का रास्ता तो बता दिया लेकिन रास्ता बताने के साथ-साथ ब्राह्मणों से कहा कि “देखो भाई…जरा ध्यान रखना…वह राजा आप जैसे ब्राह्मणों को खाने में ज़हर देकर मार देता है”।

बस जैसे ही उस “एक व्यक्ति” ने ये शब्द कहे , उसी समय यमराज ने कहा कि “उन मृत ब्राह्मणों की मृत्यु के पाप का फल इस “एक व्यक्ति” के खाते में जाएगा और इसे उस पाप का फल भुगतना होगा” ।

यमराज के दूतों ने पूछा – प्रभु ऐसा क्यों ? जब कि उन मृत ब्राह्मणों की हत्या में उस “एक व्यक्ति” की कोई भूमिका नहीं थी ।

तब यमराज ने कहा – “जब कोई व्यक्ति पाप करता हैं तब अक्सर उसे भीतर ही भीतर बड़ा सुख मिलता हैं । लेकिन उन ब्राह्मणों की मृत्यु से – ना तो राजा को सुख मिला…ना ही उस रसोइया को सुख मिला…ना ही उस साँप को सुख मिला…और ना ही उस चील को सुख मिला । लेकिन उस पाप-कर्म की घटना का बुराई करते भाव से बयान देकर उस “एक व्यक्ति” को ज़रूर सुख मिला। इसलिये उस अनजाने पाप-कर्म का फल अब उस “एक व्यक्ति” के खाते में जायेगा ।

# हमारे मन में जैसे भाव होते है, वे वैसा ही एक चुंबकीय ऊर्जा का प्रभामंडल हमारे आसपास बनाते हैं। यह ऊर्जा तरंगों के रूप में होती है, और ये तरंगें समान फ्रिक्वेंसी वाली अन्य तरंगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। इसी तरह , समान फ्रिक्वेंसी वाली तरंगें भी हमारे प्रति आकर्षित होती हैं।

यदि हमारे मन में नकारात्मक भाव होते हैं, तो हमारे आभामंडल की तरंगें भी नकारात्मक हो जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप, हम अपने जीवन में नकारात्मक ऊर्जा वाले लोग, या परिस्थितियों को आकर्षित करने लगते हैं। जब हमारे भीतर नकारात्मक ऊर्जा होती है, तो दूसरे लोग, जिनके मन में भी नकारात्मक भाव होते हैं, वे हमारी ओर सहज रूप से आकर्षित हो जाते हैं।

इसका एक चिंताजनक पहलू यह है कि यदि हमारे मन में किसी के प्रति नकारात्मक भाव होते हैं, तो हमारे प्रति कोई अन्य व्यक्ति बिना किसी स्पष्ट कारण के नकारात्मक व्यवहार दिखा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि मेरे मन में कालिंदी के प्रति नकारात्मक भाव हैं, तो यह आवश्यक नहीं कि केवल कालिंदी ही नकारात्मक प्रतिक्रिया दे। हो सकता है कि कोई अन्य व्यक्ति, जिसकी ऊर्जा तरंगें समान फ्रिक्वेंसी पर हों, हमारे प्रति नकारात्मक व्यवहार प्रदर्शित करने लगे।

इस प्रकार, हमारे मन में जो भी भाव होते हैं, वे हमारे जीवन में वैसी ही ऊर्जा और परिस्थितियों को आकर्षित करते हैं। स्मरण रहे कि मात्र मन में किसी के प्रति किसी भी भाव का उद्भव होना भी कारण (कर्म) का निर्माण माना जाता है। इस प्रकार, हमारे विचार और भावनाएँ भी कर्म के चक्र का हिस्सा होती हैं और वे हमारी ऊर्जा और जीवन की दिशा को प्रभावित करती हैं। इसलिए, सकारात्मक और नैतिक भावनाओं को अपने मन में बनाए रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है , क्योंकि जब आप किसी को हानि नहीं पहुंचाते, तो आप जो चाहें स्वतंत्र रूप से कर सकते हैं।“  

यदि “कोई दूसरा” आपके बारे में बुरा सोचता है, तो इसका कारण यह हो सकता है कि आप अनजाने में किसी के बारे में बुरा सोच रहे हैं। यदि “कोई दूसरा” आपको नुकसान पहुँचाता है, तो इसका कारण यह हो सकता है कि आपने किसी अन्य को नुकसान पहुँचाने का विचार किया है। इस प्रकार, हमारा आचरण और विचार ही हमारे जीवन की परिस्थितियाँ और दूसरों का व्यवहार निर्धारित करते हैं।

एक महत्वपूर्ण पहलू जो अक्सर हमसे अनदेखा रह जाता है, वह
यह है कि जीवन एक है। हमारा जीवन और दूसरों का जीवन एक बड़े ब्रह्मांडीय जीवन का
ही हिस्सा हैं। जो आप दूसरों के साथ करते हैं, वह
आप अपने साथ स्वयं भी करते हैं, चाहे वह जानबूझकर हो या अनजाने में, या
परोक्ष रूप से। यही रहस्य है, हम सब एक हैं।

यदि हम केवल अपनी शारीरिक इंद्रियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं और सोचते हैं कि “तुम तुम हो और मैं मैं हूँ”, तो हम उस ज्ञान से अलग हो जाते हैं कि तुम में जो जीवन है, वही जीवन मुझमें भी है। असली सच्चाई शरीर नहीं है, बल्कि वह एक जीवन है जो हम सबके भीतर है। इस पर गंभीरता से ध्यान दें *।

हमारे भीतर एक स्वार्थी पहलु है। हमें अपने अंदर के उस हिस्से को पहचानना होगा, जो हमेशा अपनी जरूरतों, डर और चिंताओं को लेकर परेशान रहता है। जब हमारे भीतर का वह “स्वार्थी पहलु” हमें नियंत्रित करने लगता हैं, तो वह हमें दूसरों को नुकसान पहुंचाने के लिए प्रेरित कर सकता है। हमारे भीतर का यह स्वार्थी पक्ष जो केवल अपनी जरूरतों के बारे में सोचता है; केवल अपने आराम और भलाई की परवाह करता है; यह तब तक नहीं रुकता जब तक वह अपनी सभी इच्छाओं को पूरा नहीं कर लेता। यह पहलु हमसे स्वार्थी ढंग से कार्य करवाता है, और इसे इस बात की परवाह नहीं होती कि यह दूसरों को नुकसान पहुँचाता है।

यह हमारे उस दबे हुए पहलु का प्रतिनिधित्व करता है जो “जो चाहे” वह करता है ! यह “यह भी नहीं पहचानता” कि अन्य लोग भी हमारे साथ कहीं न कही जुड़े हैं ; हमारे इस पहलु को दूसरों के अस्तित्व की कोई परवाह नहीं होती, उनके लिए अन्य लोग बस अस्तित्व में ही नहीं होते।

हम मनुष्य जब भी किसी अपने जीवन के सिद्धांत की बात करते हैं या स्वयं के जीवन में जिसे हम सत्य समजते है उस सत्य की बात करते हैं तो वे केवल हमारे अपने अभिप्राय होते हैं ।और हमारे अभिप्राय समय ,स्थान और स्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं – एक उदाहरण – हम एक ट्रेन में जा रहे हैं और हम ड्राइवर के साथ बैठे हैं । पटरी पर गाड़ी पूरे जोश से चल रही है , थोड़ी देर बाद अब वहां पर दो पटरियाँ आती है जिसका हमें चुनाव करना है।
अब हम देखते है कि एक पटरी पर एक इंसान बैठा है और दूसरी पटरी पर 10 इंसान बैठे हैं ।लेकिन ड्राइवर ट्रेन को किसी भी प्रयास से रोकने की स्थिति में नहीं है । अब ड्राइवर हमें पूछता है कि गाड़ी किस पटरी पर चलाएं?
उस समय हमारा लॉजिक तथ्य को समजते हुए सहज ही कहता है कि एक आदमी जहां है उधर गाड़ी ले जाए क्योंकि इस समय हमें 10 लोगों के जीवन को बचाना चाहिए।
और उसी समय यदि हमें पता चले कि पटरी पर जो वह एक व्यक्ति है वह हमारा अपना परिजन है तो ?

संभव है हम उस 10 लोगों के ऊपर गाड़ी चलाने को बोल सकते हैं और हमारे एक परिजन को बचाने का पूरा प्रयास करेंगे।

मन की उलझन भरी स्थिति – जो समय, स्थिति और स्थान के अनुसार बदलती रहती है । हम मनुष्य है और इसी कारण हमारा मन हमारे ही मन में उद्भव होते हुए भाव के सामने कई बार विवश हो जाता है । तब हमारे सत्य बदल जाते हैं, तथ्य बदल जाते है ,अभिप्राय और दृष्टिकोण बदल जाते हैं।
कभी-कभी हम तथ्य से सत्य से कर्तव्य से मुंह मोड़ लेते हैं ।

हमने अब यह समझ लिया है कि हमारे व्यक्तित्व का एक पहलु दूसरों को बिना हमारी जानकारी के नुकसान पहुँचा सकता है। आप कहेंगे, मैं किसी को भी नुकसान पहुंचाना नहीं चाहती ! बिल्कुल, आप नहीं चाहते , हममें से कोई भी जानबूझकर किसी को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता। लेकिन जब हम जागरूक नहीं होते (संवेदनशीलता नहीं होती है), तो हम निसंदेह किसी को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसीलिए आजकल मनुष्यों के बीच ऐसे रिश्ते क्यों हैं? और हमें दूसरों के साथ समस्याएँ क्यों होती हैं ? इन सवालों के जवाब जानने की हमें जरूरत है ताकि हम बेहतर रिश्ते बना सकें और समस्याओं को सुलझा सकें।

इसीलिए आजकल मनुष्यों के बीच ऐसे रिश्ते क्यों हैं ? और हमें दूसरों के साथ समस्याएँ क्यों होती हैं ? इन सवालों के जवाब जानने की हमें जरूरत है ताकि हम बेहतर रिश्ते बना सकें और समस्याओं को सुलझा सकें।

इसका कारण यह है कि हमारे भीतर का स्वार्थी हिस्सा, जो केवल अपनी जरूरतों और आराम के बारे में सोचता है, अक्सर हमें यह समझने नहीं देता कि हम कैसे दूसरों को प्रभावित कर रहे हैं। जब यह हिस्सा हमें नियंत्रित करता है, तो हम अनजाने में दूसरों को नुकसान पहुँचा सकते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि दूसरों के साथ हमारे रिश्तों में तनाव और समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। इसलिए, हमें अपने इस स्वार्थी हिस्से को पहचानने और नियंत्रित करने की आवश्यकता है ताकि हम दूसरों के साथ स्वस्थ और सकारात्मक संबंध बना सकें।

यह सिद्धांत कहता है कि “जब आप दूसरों को हानि पहुँचाते हैं, तो आप स्वयं जंजीरों में बंधे रहते हैं।” इसका मतलब है कि आपके द्वारा की गई हानि आपके पास कई गुना बढ़कर वापस आ जाएगी।

कैसे ?

उदाहरण के लिए, अगर मैं आज आपको नुकसान पहुँचाती हूँ, तो हो सकता है कि उसका परिणाम या प्रतिक्रिया मुझे तुरंत न मिले, बल्कि बीस साल बाद मिले। लेकिन उन बीस सालों के दौरान, हमारा संबंध सही नहीं रहेगा। हमारे दिलों में नफ़रत, प्रतिशोध, और ईर्ष्या भरी होगी। हर बार जब हम एक-दूसरे के संपर्क में आएंगे, तो हमें तनाव और दुख महसूस होगा। यह सिलसिला तब तक चलता रहेगा । कारण का परिणाम अर्थात कर्म का फल भले ही बीस साल मिले किन्तु कारण का /कर्म का प्रभाव तो जीवन में बना ही रहेता है , चाहे वह कर्म मन से, वाणी से ,विचारों से, व्यवहार से हुआ है लेकिन एक बार कर्म घटित हो गया कि इस कर्म के प्रभाव में आपका व्यक्तित्व और आपका आभा मंडल बना ही रहेगा । तब तक कि जब तक यह मामला सुलझ नहीं जाता।

यह नियम हमें समझाता है कि लोगों के बीच रिश्ते कैसे काम करते हैं। अगर आप किसी को नुकसान पहुँचाते हैं, तो आप स्वयं को ही मुश्किलों में फंसा लेते हैं।

जब आप सोचते हैं कि आपने कितने लोगों को नुकसान पहुंचाया है, तो आप देखेंगे कि आपने अनेक तरीकों से दूसरों को चोट पहुंचाई है, और वैसे ही दूसरों ने भी आपको चोट पहुंचाई है। इस स्थिति को सुलझाने का एकमात्र तरीका है: उन सभी चोटों को क्षमा कर देना जो दूसरों ने आपको दी हैं। आप उन्हें क्षमा कर सकते हैं क्योंकि आप समझते हैं कि उन्होंने जानबूझकर आपको नुकसान नहीं पहुंचाया था। उनके अंदर भी वही स्वार्थी पहलु है, जिसे वे नियंत्रित नहीं कर सके।

अब थोड़ा सा ह्रदय उदार करते हुए आपको उन सभी लोगों को क्षमा देनी चाहिए जिन्होंने आपको नुकसान पहुंचाया है, क्योंकि वे भी अनजाने में अपने स्वार्थी पहलु के कारण ऐसा कर रहे थे।यह आपको उस नकारात्मक चक्र से मुक्त करेगा जो प्रतिशोध और नाराजगी से उत्पन्न होता है।

जब आप उन लोगों को क्षमा करते हैं जिन्होंने आपको नुकसान पहुंचाया है, तो आप अपने दिल में शांति और सकारात्मकता को स्थान देते हैं। आप उन्हें माफ कर सकते हैं और अपने भीतर की कड़वाहट से छुटकारा पा सकते हैं। इससे आपके जीवन में सुधार होता है। इस प्रकार, क्षमा से आप न केवल दूसरों को बल्कि स्वयं को भी मुक्त करते हैं।

जब हम अपने स्वार्थी पक्ष को नियंत्रित नहीं करते , तो हमारी नकारात्मक भावनाएं और कार्य ब्रह्मांडीय संतुलन को प्रभावित करते हैं। आपकी नकारात्मक ऊर्जा और कर्मों से न केवल अपने जीवन में बल्कि ब्रह्मांड में भी असंतुलन पैदा करते है। जिससे संपूर्ण ब्रह्मांडीय संतुलन बाधित होता है।यह सिद्धांत कहेता है कि आपने विश्व में मलिनता को बढ़ाने और मनुष्यों के बीच अच्छे संबंधों की कमी में दोषी हैं। अगर आप इन पर काम करते रहेंगे,  तो वे आपको बंधे रखने वाली जंजिरें टूटने लगेंगी। अगर आप उन्हें तोड़ें पायेंगे , तो आप अपनी मुक्ति और प्रकाश तक पहुँच पाएंगे।

स्व अध्यन – अपने पिता, माता, भाई-बहन, जीवनसाथी, बच्चे, परिवार, दोस्त, सहकर्मी, और उन सभी लोगों के नाम मन में दोहराए – एक एक व्यक्ति के बारे में शांति से सोचे – फिर स्वयं से यह प्रश्न पूछें:

क्या मेरे द्वारा ( परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से ) यह व्यक्ति किसी भी प्रकार से परेशान हो रहा है ?क्या मेरे द्वारा अतीत में भी किसी भी प्रकार से इनको मैंने परेशान किया है ?

क्या जानबूझकर या अनजाने में मेरे द्वारा इस व्यक्ति को कोई नुकसान पहुँच रहा है ? क्या मेरे द्वारा अतीत में भी किसी भी प्रकार से इनको मैंने नुक्सान पहुँचाया है ?

क्या मेरे इस व्यक्ति के बारे में अच्छे विचार हैं ? और जो भी विचार है क्या वह विचार उनकी और मेरी जीवन की स्थिति और समय के साथ मैंने बदलें है ?

क्या उनके प्रति मेरा रवैया सही है? क्या मुझे समय समय से उनके जीवन और मेरे जीवन में होते हुए बदलावों को ध्यान में रखते हुए पुराने अभिगमों के स्थान पर नए अभिगम विकसित करने चाहिए

मेरा स्वार्थी पहलु  मेरे रिश्तों में  कहाँ कहाँ स्पर्श हो रहा है ?

इन प्रश्नों का विश्लेषण करते समय, बहुत निष्पक्ष और ईमानदार रहें।

Kalindi Mehta

कालिंदी महेता की योग यात्रा के प्रारंभ में – “मन की बातें

Leave a Reply