दूसरी शाम यात्रीने फिर ध्यान लगाया तब एक विशेष पहलु यात्री के ध्यान में आया किन्तु इस विशेष पहलु पर कार्य करना कुछ कठिन सा प्रतीत हो रहा था – क्योंकि अब यात्री को कुछ त्यागना था …
आगे क्या हुआ यात्री ने क्या त्यागने का निर्णय लिया इस ब्लॉग में पढ़ते है …चलिए शुरू करे मुक्ति बंधन की यात्रा…
सुबह जब दिन निकला तो यात्रीने अपनी गाड़ी को ही त्याग देने का निर्णय लिया, जिसका सीधा अर्थ यह था की अब यात्री को गाड़ी के साथ जुड़े दोनों पहिये भी खोने पड़ेंगे।यात्री को दुःख के पहिये से छुटकारा मिल गया। लेकिन यात्री को सुख का पहिया भी खोना पड़ा।(यहाँ एक रोचक तथ्य है –दुःख का पहिया खोने की ख़ुशी से अधिक उसे सुख का पहिया खोने का दुःख होता है…किन्तु दुःख से मुक्ति ही क्या सुख नहीं है ?)
(सामान्य जीवन में हम सब सुख को पाने की कामना रखते हुए ही सब कार्य करते है। इस दौरान हम स्वयं ही तय करते है कि इतने सुख को पाने के लिए मैं कितना दुःख सहन कर सकता हूँ ? यदि सुख दुःख के अनुपात मेरे लिए स्वीकार्य सुविधाओं में से है तो उस सुख को पाने के लिए हम दुःख के अनुपात की तुलना करते हुए उस सुख को पाने के लिए दुःख को सहन करने के लिए तैयार हो जाते है)
गाड़ी को त्याग कर यात्री अब केवल अपने प्राणी के ऊपर ही सवार हो गया। जो प्राणी केवल जरूरतों का प्रतिक था।
जब यात्री केवल अपने प्राणी पर सवार होकर प्रवास तय कर रहा था। तब प्राणी की गति भी तेज और सहज हो गयी ,यात्री भी बोज मुक्त अनुभव करने लगा।यात्री को जीवन का उत्कृष्ट अनुभव होने लगा। जब यात्री केवल प्राणी पर सवार होकर यात्रा करने लगा तो सफर के दौरान रास्ते में कहीं हरियाली तो कहीं रण के सौन्दर्य का रसपान करने का अवसर मिला , कहीं पहाड़ थे कहीं गाँव थे , अलग अलग लोग मिले, अलग अलग जीवन जीने के तरीके देखे , कभी धुप का अनुभव लिया तो कभी ठण्ड का मजा लिया कभी बारिश में भीगने का आनंद मिला तो कभी उत्सवों को मनाने का अवसर मिला और इसी तरह प्राणी पर सवार होकर सरलता से यात्री अपनी मंजिल को प्राप्त कर गया ।
यात्रा का अर्थ यहाँ अपना जीवन है और मंजिल का अर्थ है मुक्ति ।पीडाओं से दुखों से मुक्ति…हम सब यात्रा की अवधि से अनजान है बस हमें तो रास्ता तय करना है अपनी मंजिल तक का ।
इस रास्ते में कितना कुछ है किन्तु हम अपनी गाड़ी की सजावट करने में ही व्यस्त रहेते है…जैसे बड़ी कार, बड़ा घर, विदेश यात्रा, ब्रांडेड उपभोग की वस्तुएं
इन इच्छाओं का या कामनाओं का या ख्वाहिशों का भी अजीब दौर है…जैसे मेरे पास कार है लेकिन मेरे मित्र की कार से छोटी है;कार होने के सुख से अधिक दुसरो के पास मेरी कार से भी बेहतर कार है उसका दुःख…क्यों मुझे बड़ी कार चाहिए ? क्योंकि मेरे दोस्तों पर मेरा प्रभाव हो।मेरा घर आलिशान होना चाहिए ताकि मेरे रिश्तेदारों को मैं प्रभावित कर सकू , कपडे मेरे ब्रांडेड होने चाहिए ताकि मैं ज्यादा स्मार्ट दिखूं ( ब्रांडेड कपडे जूते मेकअप यह सब तो भाड़े का आत्मविश्वास होता है …) और इस प्रकार हम कामनाओं की गाडी को सजाते रहते है और यदि कामनाओं के जाल में एकबार व्यक्ति फँस जाएं तो अनजाने में ही हम एक प्रकार की निरर्थक “RAT RACE” में जुड़ जाता है। जहाँ हर एक चूहा हर दुसरे चूहे से आगे निकलना चाहता है और दौड़ता है।
हर चूहे के मन की कामना है – मैं सब से आगे रहूँ।मेरी प्रतिष्ठा सब से ऊँची हो लेकिन इस दौड़ में मिलता क्या है ? पीड़ा, दुःख, क्रोध, इर्षा,जलन,अहंकार, हिंसा और अंत में अकेलेपन की ट्रोफ़ी और यह ट्रोफ़ी केवल विजेता को नहीं बल्कि हर उस चूहे को मिलती है जो इस रेट- रेस में भाग लेता है…
शुरू में तो दौड़ने का आनंद आता है ।अपनी शक्ति को विकसित होने का अवकाश मिलता है। कुछ पाने का विकसित होने का सुख भी मिलता है लेकिन बाद में हमारी शक्ति को हम विकास के लिए नहीं बल्कि रेस में दौड़ने के लिए लगाने लगते है एक ऐसी निरर्थक रेस जो ख़त्म ही नहीं होंगी…और इस का अहेसास दौड़ने वाले चूहों को भी नहीं होता है कि इस रेट- रेस की कोई अंतिम winning line या finish line ही नहीं है।
जब कोई चूहा दुसरे चूहे से आगे निकलता है तो आगे निकलनेवाले चूहे को अहंकार आ जाता है और जब वह दूसरा चूहा उस पहले चूहे को पीछे छोड़ता है तब उस पहेले चूहे को उस दुसरे चूहे पर क्रोध आता है भले ही फिर वह दूसरा चूहा उसका भाई या मित्र हो उस पहेले चूहे के भीतर इर्षा की आग लगी होती है। पहेला चूहा यह मानता है कि मुझे से आगे कोई नहीं होना चाहिए ; मुझसे अधिक कोई स्मार्ट या बुद्धिमान नहीं होना चाहिए ;मैं ही लीडर हूँ ;मैं ही ज्ञानी हूँ ; मैं ही नंबर वन हूँ ; कोई मुज से आगे कैसे निकल सकता है ?
जब कोई एक चूहा दुसरे चूहे की बराबरी में दौड़ता है तो उसे कैसे पछाड़ा जाये इसका षड्यंत्र उद्भव होता है …कहीं वह दूसरा चूहा मुझसे आगे न निकल जाए इस बात की पीड़ा मन में सतत बनी रहती है… हर मोड़ पर एक ही परिणाम …पीड़ा …पीड़ा …पीड़ा
भागते भागते एक वक्त आता है कि चूहे को इस रेट- रेस से निकल जाने की तीव्र इच्छा होती है लेकिन यह इतना आसान नहीं होता है। इस निरर्थक रेट- रेस में दौड़ते दौड़ते चुहे ने जीवन से आनंद ,प्रेम ,शांति, सहानुभूति ,करुना अपने लोग अपनापन सब कुछ कही गवां दिया होता है । जब होंश आता है तो हर चूहा अपने आपको अकेला ही पाता है …
एक बहुत ही सुंदर घटना का उल्लेख करना चाहूंगी –
कुछ लोग जो मानसिक और थोड़े शारीरिक स्तर पर “challenged” होतें है वैसे लोगों में भी जो खेल के प्रति उत्साहित होते है वैसे खिलाडिओं के लिए ओलम्पिक में १०० मीटर की दौड़ की स्पर्धा का आयोजन हुआ था।
९ प्रतिभागी १०० मीटर की दौड़ के लिए मैदान में तैयार थे और स्पर्धा शुरू हुई । दौड़ शुरू हुई सभी प्रतिभागी बड़े ही उत्साह से दौड़े किन्तु कुछ ही समय पश्च्यात एक लड़का किसी कारणवश दौड़ते दौड़ते मैदान पर गिर गया और गिर जाने की वजह से उसे चोट आयी और वह वहीँ रोने लगा।अब दुसरे आठ प्रतिभागियों ने उस लड़के को रोते सुना…उन्होंने दौड़ना बंध कर दिया और वे सभी आठ प्रतिभागी वापस उस लड़के के पास आये।उन में से एक ने उस लड़के के जख्म को देखा और फिर उसे गले लगाकर कहा “अब तुम्हें ठीक लग रहा है ?” जब उस लड़के ने “हाँ ” कहा तब सभी प्रतिभागी एक दुसरे का हाथ पकड़कर मिलकर दौड़े और फिनिश लाइन को साथ में पार किया…मैदान में जितने भी दर्शक मौजूद थे वे सभी खड़े हो गए । सराहना करते हुए तालियों की गूंज से उन सभी ९ प्रतिभागियों का अभिवादन किया ।
दोस्तों , लोग आज भी उस दौड़ को याद करतें है क्यों?
क्योंकि हम सब भीतर से जानते है की जीवन में जित पाने से भी अधिक महत्त्व का कुछ है – उन्हें धीरे धीरे दौड़ना पड़ा या दौड़ की स्पर्धा के नियमों को और दौड़ को जितने के नियमों को बदलना पड़ा तो भी उन्हें वह स्वीकार था ।
किन्तु मित्रों वे प्रतिभागी तो मानसिक और शारीरिक स्तर पर “challenged” थे ,हम तो परिपक्व और बुद्धिशाली लोग है .हमारी जिंदगी की रफ़्तार बड़ी ही तेज है. कोई पीछे छूट गया या कोई पीछे गिर गया या चाहे कोई पीछे थक कर रुक गया…हमें इसे कोई सरोकार नहीं है। हमारी आज की इस रेट रेस में तो हम पीछे मुड़कर देखते भी नहीं …कौन पीछे छूट गया हमें किसी की दरकार नहीं है , हम किसी के लिए भी रुकते नहीं।
तुम भाग सको तो भागो…आगे निकल सकों तो निकलों…साथ चल सकों तो चलों…किसी के लिए हम अपनी गति धीमी नहीं कर सकते…किसी के लिए हम अपनी रेस के नियमों को बदल नहीं सकते…खेद इस बात का है की हमारे पास अपने मन की बात या अपनों के मन की बात सुनाने का समजने का कहने का वक्त ही कहाँ है ? मन में डर है की कहीं हम दूसरों से कहीं पीछे न छूट जाएँ या यह भी भय है की कहीं हम से कोई आगे न निकल जाएँ।
हम बस भागे जा रहे है…क्यों? किससे भागे जा रहे है ? किस दिशा में भाग रहे है ? यह suffering का चुनाव हमने क्यों किया ? इन्हीं पर कुछ रोचक प्रस्तुति को अगले ब्लॉग में पढेंगे… continue …3